ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २६८
रागी कर्मफलप्रेप्सुः लुब्धः हिंसात्मकः अशुचिः हर्ष शोकान्वितः कर्ता राजस .. (अध्याय १८ - श्लोक २७)
ராகி கர்மஃபலப்ரேப்ஸுஹு லுப்தஹ ஹிம்ஸாத்மகஹ அஶுசிஹி ஹர்ஷ ஶோகான்விதஹ கர்தா ராஜஸ ... (அத்யாயம் 18 - ஶ்லோகம் 27)
Raagi Karmaphalaprepsuh Lubdhah Himsaatmakah Ashuchih Harsha Shokaanvitah Kartaa Raajasa . (Chapter 18 Shlokam 27)
अर्थ : राग , कर्मफल की इच्छा , लोभ , हिंसा , अशुचि और हर्ष और शोक से बाधित होना आदि राजस कर्ता के लक्षण हैं ।
सात्त्विक व्यक्ति यदि कर्म में शान्त लगता है , राजसी तीव्र राग या लगाव के साथ कर्म में लगता है । आंग्ल भाषा में passion कहते हैं जिसे , उस अवस्था में कर्म में लगता है । कर्म स्वयं से ही हो , इसमें तीव्रता । कर्म उत्तम रीत हो इसमें तीव्रता । कर्म के फलस्वरूप स्वयं का नाम रोशन हो जाय इसमें तीव्रता । कर्म से प्राप्त अन्य सभी फल स्वयं को मिले इसमें तीव्रता ।
राजसी के इस वृत्ति के सहज परिणाम हैं लोभ एवं हिंसा । स्वयं को ही मिले - यह लोभ । केवल स्वयं के द्वारा कर्म हो , यह भी लोभ । सब कुछ स्वैच्छा से हो यह लोभ । अधिकाधिक मिल जाये यह लोभ ।
राह पर आने वाले बाधाओं को मिटाने की तीव्र इच्छा के कारण हिंसा जन्मती है । स्पर्धक बनकर आने वाले अन्यों को मार्ग से हटाने के तीव्र प्रयत्नों में हिंसा सहज जन्मती है ।
तीव्रता दोनों दिशा में साथ साथ होती है । तीव्र राग के साथ तीव्र द्वेष । तीव्र उत्साह के साथ साथ तीव्र नैराश्य । यश की प्राप्ति से तीव्र हर्ष । वैसे ही अपयश की प्राप्ति से तीव्र शोक । राजसी व्यक्ति में इसे देख सकते हैं ।
राजसी के इस वृत्ति के सहज परिणाम हैं लोभ एवं हिंसा । स्वयं को ही मिले - यह लोभ । केवल स्वयं के द्वारा कर्म हो , यह भी लोभ । सब कुछ स्वैच्छा से हो यह लोभ । अधिकाधिक मिल जाये यह लोभ ।
राह पर आने वाले बाधाओं को मिटाने की तीव्र इच्छा के कारण हिंसा जन्मती है । स्पर्धक बनकर आने वाले अन्यों को मार्ग से हटाने के तीव्र प्रयत्नों में हिंसा सहज जन्मती है ।
तीव्रता दोनों दिशा में साथ साथ होती है । तीव्र राग के साथ तीव्र द्वेष । तीव्र उत्साह के साथ साथ तीव्र नैराश्य । यश की प्राप्ति से तीव्र हर्ष । वैसे ही अपयश की प्राप्ति से तीव्र शोक । राजसी व्यक्ति में इसे देख सकते हैं ।
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