ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २५८
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माणि अशेषतः .. (अध्याय १८ - श्लोक ११)
ந ஹி தேஹப்ருதா ஶக்யம் த்யக்தும் கர்மாணி அஶேஷதஹ .. (அத்யாயம் 18 - ஶ்லோகம் 11)
Na Hi DehaBhruthaa Shakyam Tyakthum Karmaani Aseshatah ... (Chapter 18 - Shloka 11)
अर्थ : देहधारी मनुष्य के लिये सभी कर्मों से पूर्ण रूप से मुक्ति कतई सम्भव नहीं ।
शरीर जब तक है , इस संसार में कार्यों से छुट्टी यह असम्भव है । शरीर के निर्वाह के लिये भी कार्य करना अनिवार्य है । शरीर धर्म को निभाने के लिये भी कार्य करना आवश्यक है । भूख , प्यास , थकान , काम जैसे शारीरिक अवस्थाओं से मुक्त होना हो तो भी कर्मों में लगना ही पडेगा । शरीर को रोग एवं अस्वस्थता से रक्षण करने प्रयत्नों की आवश्यकता है । स्वयं की और परिसर की स्वच्छता के लिये श्रम की अवश्यकता है । संसारिक जीवन के अन्तिम क्षण पर्यन्त चलना , उठना , बैठना , बोलना , सम्बन्ध बनाना , धनार्जन के प्रयत्न , स्वयं पर निर्भर जनों का रक्षण पोषण , धन संपत्ति के रक्षण आदि कर्म टाले नहीं जा सकते ।
कर्म छूट नहीं सकते । अपने सामने एक ही पर्याय है । कर्म फल की इच्छा के विना कर्मों में लग सकते हैं !!
कर्म छूट नहीं सकते । अपने सामने एक ही पर्याय है । कर्म फल की इच्छा के विना कर्मों में लग सकते हैं !!
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