ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २६१
सर्व भूतेषु येनैकं भावमव्ययम् अविभक्तं विभक्तेषु ईक्षते तज्ज्ञानं सात्विकम् ... (अध्याय १८ - श्लोक २०)
ஸர்வ பூதேஷு யேனைகம் பாவமவ்யயம் அவிபக்தம் விபக்தேஷு ஈக்ஷதே தஜ்ஞானம் ஸாத்விகம் .. (அத்யாயம் 18 - ஶ்லோகம் 20)
Sarva Bhooteshu Yenaikam Bhaavamavyayam Avibhaktam Vibhakteshu Eekshate Tajgyaanam Saattvikam ... (Chapter 18 - Shlokam 20)
अर्थ : जिस ज्ञान से सभी मर्त्य जीवों में एक अव्यय दिखता हो , विभक्त संसार में अविभक्त एक दिखता हो , वह सात्त्विक ज्ञान है ।
प्रकृति में सब कुछ त्रिगुणों के मिश्रण से बने हैं । बुद्धि द्वारा जानना इस क्रिया में आधार है ज्ञान । ज्ञान भी त्रिगुणों से ही परिणित है । गुण के अनुरूप ज्ञान के तीन प्रकार हैं । यहाँ श्री कृष्ण सात्त्विक ज्ञान की चर्चा कर रहे हैं ।
सात्त्विक गुण पूर्णत्त्व देखने की प्रेरणा देता है । विविधता ही प्रकृति की सामान्य विधि है । अनेक रंग , अनेकानेक रूप .. अनेक प्रकार के सामर्थ्य .. जितने जीव उतने प्रकार .. यह बाह्य दृश्य आकर्षक भी है । इस आकर्षण में हम बंधे जाए और इसी में मोहित हो जाय इसी की सम्भावना अधिक है । इस विविधता के पीछे सूत्र रूप में प्रवाहित होने वाले एक को देखने प्रवृत्त करता है सात्त्विक ज्ञान । अनेक वर्णों के पीछे एक श्वेत वर्ण देखता है । बाह्य दृष्टी के लिये अनेक सामर्थ्य दिखें तो भी इन सभी सामर्थ्यों का कारण जो एक है उसे देखता है । बाह्य दृश्य के आकर्षण में न डूबकर सात्त्विक ज्ञान दृष्टी को अन्दर घुमाता है और वहाँ स्थित एक को देखता है ।
मिठाई के दुकान में अनेक प्रकार की मिठाइयाँ रखे होते हैं । अनेकानेक रंग , अनेक रूप में बने मिठाइयाँ आकर्षक रंगीन प्रकाश में सजाये रखे होते हैं । अन्य जन इस बाहरी दृश्य में मोहित होकर , इन मिठाइयों को भिन्न भिन्न समझ लेते हैं । परन्तु सात्त्विक ज्ञान बाहरी विविधता से परे देखकर इन सभी मिठाइयों को एक ही आटा , एक ही घी और एक ही शक्कर से बने हुए देखता है ।
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