ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २६७
मुक्त सङ्गोSनहंवादि धृत्युत्साह समन्वितः सिद्ध्यसिद्ध्योः निर्विकारः कर्ता सात्त्विक ... (अध्याय १८ - श्लोक २६)
முக்தஸங்கோ(அ)னஹம்வாதி த்ருத்யுத்ஸாஹ ஸமன்விதஹ ஸித்யஸித்யோர் நிர்விகாரஹ கர்தா ஸாத்விக . (அத்யாயம் 18 - ஶ்லோகம் 26)
Mukta Sango(a)nahamvaadi Dhrutyutsaaha Samanvithah Siddhyasiddhyoh Nirvikaarah Kartaa Saattvika .. (Chapter 18 - Shlokam 26)
अर्थ : राग रहित , 'अहम्' का अभाव के साथ राग रहित हो वह , धृति एवं उत्साह पूर्ण जो हो वह , यश और अपयश से अबाधित हो वह सात्त्विक कर्ता है ।
कार्य के प्रति राग या आकर्षण ही उक्त कार्य करने की प्रेरणा है .. कर्म फल के प्रति इच्छा ही उक्त कर्म करने की प्रेरणा है .. कार्य में प्राप्त हो रहे यश में ही उत्साह के बीज हैं .. कार्य में प्राप्त अपयश मन के उत्साह को सूखा देता है । ऐसे कई धारणायें प्रचलित हैं । थोड़ी गहराई में सोचने से इन धारणाओं में छुपे असत्य प्रकट हो जाएगा ।
यह सत्य है की कार्य के प्रति राग उस कार्य करने प्रेरणा देता है । परन्तु , यह भी सत्य है की अन्य कारणों से यही उत्साह घट भी जाता है । "यह कार्य करने योग्य है या नहीं" "इसे करना मेरा कर्त्तव्य है" ऐसी धारणा ही सही प्रेरणा हो सकती है । इसी प्रकार कर्म फल के प्रति इच्छा भी । यही इच्छा कार्य करने में आवश्यक ध्यान को कम करती है , यह भी सत्य है । फलस्वरूप कार्यक्षमता को घटा देती है । यश अवश्य उत्साह वर्धक है । परन्तु कुशलता पूर्ण कार्य निश्चित यश प्राप्त कराता है ऐसा नहीं । यश और अपयश कार्य कुशलता के अलावा अन्य कई विषयों पर निर्भर हैं । अतः यश प्राप्त हो की अपयश , करने योग्य कार्यों को करना ही श्रेष्ट है ।
सात्विक कर्ता यही वृत्ति रखता है ।
यह सत्य है की कार्य के प्रति राग उस कार्य करने प्रेरणा देता है । परन्तु , यह भी सत्य है की अन्य कारणों से यही उत्साह घट भी जाता है । "यह कार्य करने योग्य है या नहीं" "इसे करना मेरा कर्त्तव्य है" ऐसी धारणा ही सही प्रेरणा हो सकती है । इसी प्रकार कर्म फल के प्रति इच्छा भी । यही इच्छा कार्य करने में आवश्यक ध्यान को कम करती है , यह भी सत्य है । फलस्वरूप कार्यक्षमता को घटा देती है । यश अवश्य उत्साह वर्धक है । परन्तु कुशलता पूर्ण कार्य निश्चित यश प्राप्त कराता है ऐसा नहीं । यश और अपयश कार्य कुशलता के अलावा अन्य कई विषयों पर निर्भर हैं । अतः यश प्राप्त हो की अपयश , करने योग्य कार्यों को करना ही श्रेष्ट है ।
सात्विक कर्ता यही वृत्ति रखता है ।
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