ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २६४
नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषत: कृतं अफलप्रेप्सुना कर्म सात्त्विकम् ... (अध्याय १८ - श्लोक २३)
நியதம் ஸங்கரஹிதம் அராகத்வேஷதஹ க்ருதம் அஃபல்ப்ரேப்ஸுநா கர்ம ஸாத்விகம் .. (அத்யாயம் 18 - ஶ்லோகம் 23)
Niyatam Sangarahitam AraagaDweshatah Krutam Aphalaprepsunaa Karma Saattvikam .. (Chapter 18 - Shlokam 23)
अर्थ : शास्त्रोक्त , राग द्वेष रहित एवं फल की इच्छा रहित कर्म सात्त्विक है ।
शास्त्रोक्त कर्म सात्त्विक कर्म है । विज्ञान केवल विधियाँ बताता है । निसर्ग में चलने वाली गतिविधियाँ जिन नियमों पर होते हैं , उनकी चर्चा करता है । उन विधियों के अनुरूप कर्म हितकारी हैं । विधियों के विरुद्ध कर्म नाशकारी हैं ।
देश का संविधान केवल लोक व्यवहार के नियम बताता है । इतना ही बताता है की क्या किया जाय और क्या किया न जाय । नियमों की सीमा में कर्म रहें तो हितकारी और नियमों के विरुद्ध रहें तो नाशकारी हैं ।
उसी प्रकार , शास्त्र भी धार्मिक क्षेत्र में करणीयम् क्या हैं और अकरणीयम् क्या यह बताता है । शास्त्रोक्त कर्म हितकारी हैं और शास्त्र विरुद्ध कर्म नाशकारी ।
परन्तु हित की आशा से या अहित के भय से कर्म करना या त्यागना भी श्रेष्ट नहीं । कर्म के प्रति राग और द्वेष के बिना किये गए कर्म और फल की इच्छा के बिना किये गये कर्म ही श्रेष्ट और सात्त्विक है । शास्त्रों के प्रति श्रद्धा मात्र कर्म के लिये प्रेरणा रहे , यही अपेक्षा ।
देश का संविधान केवल लोक व्यवहार के नियम बताता है । इतना ही बताता है की क्या किया जाय और क्या किया न जाय । नियमों की सीमा में कर्म रहें तो हितकारी और नियमों के विरुद्ध रहें तो नाशकारी हैं ।
उसी प्रकार , शास्त्र भी धार्मिक क्षेत्र में करणीयम् क्या हैं और अकरणीयम् क्या यह बताता है । शास्त्रोक्त कर्म हितकारी हैं और शास्त्र विरुद्ध कर्म नाशकारी ।
परन्तु हित की आशा से या अहित के भय से कर्म करना या त्यागना भी श्रेष्ट नहीं । कर्म के प्रति राग और द्वेष के बिना किये गए कर्म और फल की इच्छा के बिना किये गये कर्म ही श्रेष्ट और सात्त्विक है । शास्त्रों के प्रति श्रद्धा मात्र कर्म के लिये प्रेरणा रहे , यही अपेक्षा ।
Comments
Post a Comment