ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २७०
प्रवृत्तिंच निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये बन्धं मोक्षं च वेत्ति सा सात्त्विकी बुद्धि ...  (अध्याय १८ - श्लोक ३०)
ப்ரவ்ருத்திம் ச நிவ்ருத்திம் கார்யாகார்யே பயாபயே பந்தம் மோக்ஷம் ச யா வேத்தி ஸா புத்தி ஸாத்விகீ ...  (அத்யாயம் 18 - ஶ்லோகம் 30)
Pravuttim cha Nivruttim KaaryaaKaarye Bhayaabhaye Bandham Moksham cha Yaa Vetti saa Buddhi Saattvikee ... (Chapter 18 - Shlokam 30)
अर्थ :  बुद्धि जो करणीयं और अकरणीयम , कर्तव्यं और अकर्तव्यं , भयं और अभयं , बन्धं और मोक्ष आदि ठीक जानती है , वह सात्त्विकी बुद्धि ।
किं करणीयम् , करने योग्य क्या है यह जानना सात्विकी है ।  व्यक्ति , स्थान और सन्दर्भ के अनुसार क्या करें , क्या न करें , किसे स्वीकारें , किसे त्यागें आदि जानना आवश्यक है ।  परन्तु क्या इसे सीखकर जान लेना सम्भव है ?  यह तो स्वभाव पर आधारित है ।  सात्त्विक वृत्ति वाले मनुष्य के लिए यह सहज स्वाभाविक है ।  राग एवं स्वार्थी अपेक्षायें नहीं ।  परिणामतः मन में आतंक नहीं ।  मनस शांत रहता है ।  जो बुद्धि मन के आँधियों को , उद्वेग को और मोह को वश कर चिन्तन करती हो , वह बुद्धि सही दिशा में चिन्तन करने का सामर्थ्य रखती है और सही सुझाव ही देती है ।  यही सात्त्विक बुद्धि है ।
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