ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २७३
धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा सात्त्विकी .. (अध्याय १८ - श्लोक ३३)
த்ருத்யா யயா தாரயதே மனஹ - ப்ராணேந்த்ரியாஹ க்ரியாஹ் யோகேனாவ்யபிசாரிண்யா த்ருதி ஸா ஸாத்விகீ .. (அத்யாயம் 18 - ஶ்லோகம் 33)
Dhrutyaa Yayaa Dhaarayate Manah Praanendriya Kriyaah Yogena Avyabhichaarinya dhrutih saa Saattviki .. (Chapter 18 - Shlokam 33)
अर्थ : जो योग से विकसित होती है और मन - प्राण - इन्द्रियों के कार्यों के धारण करती है , वह सात्त्विक धृति है ।
धृति यह दृढ़ता है । दृढ़ निश्चित मनस है । योग मार्ग में अभ्यास मानसिक दृढ़ता को विकसित करता है । इन्द्रियों के कार्यों को सुचारु करता है । प्राण का संवर्धन करता है । मन , इन्द्रिय और प्राण को वश करता है । इस प्रकार की धृति मार्ग के अडथलों का नाश कर , अन्य आकर्षणों से बचकर लक्ष्य की ओर हमारे प्रगति को सुलभ बनाने में अत्यावश्यक साधन है । यही सात्त्विक धृति है ।
धृति से ही धृति का जन्म होता है । निश्चय से ही निश्चय पनपता है । दृढ़ निश्चय के साथ किये हुए योगाभ्यास धृति को जगाकर विकसित करता है । योग अभ्यास का प्रधान लक्षण है अविरत अभ्यास , अथक प्रयास । आसन अभ्यास शरीर अनावश्यक हलचलों को रोककर शरीर में स्थिरता लाता है । शरीर अपने कार्यों के लिए अनुकूल बनता है । लक्ष्य की दिशा में अपने प्रयाण में सक्षम बनता है । प्राणायाम का अभ्यास मनस को सुदृढ़ बनाता है । मन की चञ्चलता मिटकर मन स्थिर होता है । ऐसा मन अनावश्यक आकर्षणों में मोहित होता नहीं । अडथालों और अड़चनों से लड़खड़ाता नहीं । प्राणायाम और ध्यान के अभ्यास प्राण शक्ति का संवर्धन कर बिखर जाने से रोकता है ।
मन , प्राण और इन्द्रियों को वश करने वाली यह धृति सात्त्विक धृति है ।
Comments
Post a Comment