ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २७५
यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदं न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा तामसी .. (अध्याय १८ - श्लोक ३५)
யயா ஸ்வப்னம் பயம் ஶோகம் விஷாதம் மதம் ந விமுஞ்சதி துர்மேதா த்ருதி ஸா தாமஸி .. (அத்யாயம் 18 - ஶ்லோகம் 35)
Yayaa Swapnam Bhayam Shokam Vishaadam Madam na vimunchati Durmedhaa Dhrutih saa Taamasi .. (Chapter 18 - Shlokam 35)
अर्थ : जिस धृति के कारण अज्ञानी व्यक्ति स्वप्न , भय , शोक , विषाद और मद को छोड़ता नहीं , वह वह तामसी धृति है ।
तामसी भले ही जानता की अति निद्रा , आलस्य , हाथ में आये कार्य को कल के लिए ढकेलना आदि अपने प्रगति पथ पर बाधाएं हैं । परन्तु अपने अंदर जड़ पकड़ कर बैठी हुई इन वृत्तियों को वह उखाड़ फ़ेंकने में असमर्थ है । उसके अंतःकरण में भी दृढ़ता है जो इन वृत्तियों को गट्ठ धर रखती है और छोड़ती नहीं । यही तामसी धृति है । क्या इसे भी दृढ़ता कहें ?? श्री कृष्ण के अनुसार , हाँ !! यह भी । तामसी दृढ़ता है ।
उसी प्रकार भय , दुःख , मोह , मद जैसी वृत्तियाँ भी तामसी के लक्षण हैं । और वह भली भाँती जानता की ये उसके ;लिए बाधा हैं । परन्तु वह इनके विरुद्ध संघर्ष छेड़ता नहीं । इनसे मुक्त होने के प्रयास करता नहीं । उन्हें वह अपना अपरिवर्तनीय स्वभाव मान लेता है । ये वृत्तियाँ भी उसमें जड़ पकड़कर स्थिर हो जाते हैं । भ्रम होता की उन्हें इसने पकड़ा है या उन वृत्तियों ने इसे । पकड़ दृढ़ अवश्य है । इसी धृति को तामसी धृति कह रहे हैं श्री कृष्ण ।
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