ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २७९
विषयेन्द्रिय संयोगात् यत्तदग्रे अमृतोपमं परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसम् .. (अध्याय १८ - श्लोक ३८)
விஷயேந்த்ரிய ஸம்யோகாத் யத்ததக்ரே அம்ருதோபமம் பரிணாமே விஷமிவ தத் ஸுகம் ராஜஸம் ... (அத்யாயம் 18 - ஶ்லோகம் 38)
Vishayendriya Samyogaat Yattadagre Amruthopamam Parinaame Vishamiva thath Sukham Raajasam .. (Chapter 18 - Shlokam 38)
अर्थ : इन्द्रियों का अपने अपने विषयों के साथ संयोग होने से जन्मने वाला सुख राजसी है । यह आरम्भ में मधुर लगता है परन्तु परिणाम दुःखदायी है ।
सुख इस नाम से हमें जिन जिन सुखों का परिचय है , वे सभी इन्द्रिय - विषय संगम से उत्पन्न हैं । आँख दृश्य से , कर्ण शब्द से , नासी गन्ध से , जिह्वा रूचि से और त्वचा स्पर्श से जब मिलते हैं और फलस्वरूप जो अनुकूल अनुभव प्राप्त होता है उसे सुख कहते और जो प्रतिकूल अनुभव प्राप्त होते उन्हें दुःख कहते । इन सुखों को इन्द्रिय सुख या शरीर सुख भी कहते हैं ।
ये सुख इंद्रियों द्वारा ही प्राप्त होते हैं । मन के द्वारा अनुभव किये जाते हैं । प्रारम्भ में ये सुखमय प्रतीत होते हैं । मन को लुभाते हैं । अमृत तुल्य लगते हैं । मन इन सुखों का पुनः पुनः अनुभव करना चाहता है । परन्तु , काल प्रवाह में विष - तुल्य कटु परिणाम उत्पन्न करते हैं । श्री कृष्ण के अनुसार इन सुखों के दुःख - दाई , कष्ट - दाई और रोग - प्रदा परिणाम हैं । इन्द्रियों का अपने अपने विषयों के संग पुनः पुनः संयोग होने के कारण और बढ़ती आयु के कारण इन्द्रिय थक जाते हैं और शिथिल हो जाते हैं । सुख भोग में असमर्थ हो जाते हैं । दुःख का यह कारण है । रोग उत्पन्न होते हैं और शारीरिक कष्ट के कारण बनते हैं । सिगरेट की धुँआ खींचना इस विषय में ज्वलन्त उदाहरण है ।
मन में सुख भोग की इच्छा जीवित हो परन्तु थके अक्षम इन्द्रिय विषय संयोग के लिए असमर्थ होते तो सुख भोग से वंचित मन दुःखी होता । और संसार में विषय सतत उपलब्ध नहीं होते । दुःख का यह भी एक कारण है ।
सुख इस नाम से हमें जिन जिन सुखों का परिचय है , वे सभी इन्द्रिय - विषय संगम से उत्पन्न हैं । आँख दृश्य से , कर्ण शब्द से , नासी गन्ध से , जिह्वा रूचि से और त्वचा स्पर्श से जब मिलते हैं और फलस्वरूप जो अनुकूल अनुभव प्राप्त होता है उसे सुख कहते और जो प्रतिकूल अनुभव प्राप्त होते उन्हें दुःख कहते । इन सुखों को इन्द्रिय सुख या शरीर सुख भी कहते हैं ।
ये सुख इंद्रियों द्वारा ही प्राप्त होते हैं । मन के द्वारा अनुभव किये जाते हैं । प्रारम्भ में ये सुखमय प्रतीत होते हैं । मन को लुभाते हैं । अमृत तुल्य लगते हैं । मन इन सुखों का पुनः पुनः अनुभव करना चाहता है । परन्तु , काल प्रवाह में विष - तुल्य कटु परिणाम उत्पन्न करते हैं । श्री कृष्ण के अनुसार इन सुखों के दुःख - दाई , कष्ट - दाई और रोग - प्रदा परिणाम हैं । इन्द्रियों का अपने अपने विषयों के संग पुनः पुनः संयोग होने के कारण और बढ़ती आयु के कारण इन्द्रिय थक जाते हैं और शिथिल हो जाते हैं । सुख भोग में असमर्थ हो जाते हैं । दुःख का यह कारण है । रोग उत्पन्न होते हैं और शारीरिक कष्ट के कारण बनते हैं । सिगरेट की धुँआ खींचना इस विषय में ज्वलन्त उदाहरण है ।
मन में सुख भोग की इच्छा जीवित हो परन्तु थके अक्षम इन्द्रिय विषय संयोग के लिए असमर्थ होते तो सुख भोग से वंचित मन दुःखी होता । और संसार में विषय सतत उपलब्ध नहीं होते । दुःख का यह भी एक कारण है ।
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