ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २८०
यदग्रे चानुबन्धे सुखं मोहनमात्मनः निद्रालस्य प्रमादोत्थं तत्तामसं सुखम् .. (अध्याय १८ - श्लोक ३९)
யத்தத் அக்ரே சாநுபந்தே ஸுகம் மோஹனமாத்மனஹ நித்ராலஸ்ய ப்ரமாதோத்தம் தத்தாமஸம் ஸுகம் .. (அத்யாயம் 18 - ஶ்லோகம் 39)
Yadagre Chaanubandhe Sukham Mohanamaatmanah Nidraalasya Pramaadotthama Tataamasam Sukham .. (Chapter 18 - Shlokam 39)
अर्थ : निद्रा , आलस्य एवं प्रमाथ से उत्पन्न सुख तामसी है । आरम्भ से अंत तक यह मोहित करता है ।
तमस के प्रधान लक्षण हैं मोह , आत्म विस्मृति । कुछ सुख ऐसे हैं जो मोहित करते हैं । प्रज्ञा उड़ाते हैं । क्या इन्हें भी सुख कहा जाये ?? सुख की सर्व सामान्य व्याख्या में आते नहीं । फिर भी , इन्हें भोगने वालों को इन सुखों की प्राप्ति की पुनः पुनः इच्छा करते देख , इन्हें सुख कहना अनुचित नहीं होगा । मद्य पान , नशीली वस्तु आदि भी कई जनों को सुख तो प्रदान करते ही हैं । इस प्रकार मोह में बांधने वाले सुख तामसी हैं ।
सुख भोग के पूर्व सुख भोगने की इच्छा जन्मता है मोहित अवस्था में । यदि मोह या प्रज्ञा का अभाव न हो तो क्या इन सुखों का भोग की इच्छा भी उत्पन्न होगी ?? इन सुखों का भोग करते समय भी मोहित अवस्था ही रहती है । इन सुखों का भोग के परिणाम रूप में उत्पन्न अवस्था भी मोह ही है ।
ऐसा प्रतीत होता की यह सुख वस्तुओं में या नशीले पान में है । परन्तु सत्य यह है की यह सुख निद्रा , आलस्य और प्रमाथ जैसे तामसी स्वभाव से मोहित बुद्धि में जन्मता है ।
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