ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २८२
क्षात्रं कर्म स्वभावजम ... (अध्याय १८ - श्लोक ४३)
க்ஷாத்ரம் கர்ம ஸ்வபாவஜம் ... (அத்யாயம் 18 - ஶ்லோகம் 43)
Kshaatram Karma Swabhaavajam ... (Chapter 18 - Shloka 43)
अर्थ : क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं ।
क्षत्रिय के कर्म इन वृत्तियों को प्रकट करते हैं । (१) .. शौर्यं - साहस , सामान्यतः कोई जिस कार्य करने में हिचकता है , सामान्यतः कोई जहाँ पग रखने का साहस करता नहीं , क्षत्रिय उस कार्य को सहज करता है । उस पथ पर चलता है । (२) .. तेजः -- यह शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं । (अ) - अन्यों पर प्रभाव - (आ) - वेग .. (३) .. धृतिः - धैर्य , कष्ट को सहने की क्षमता । (४) .. दाक्ष्यम् .. जागृति , चेत अवस्था , दक्षता । (५) .. युद्धे चाप्यपलायनम् - युद्ध से पीछे न हटना । (६) - दानम् .. दान देने की वृत्ति क्षत्रिय की प्रधान वृत्ति है । (७) .. इश्वर भावः - मैं ही इश्वर - मैं ही सर्व - अधिकारी हूँ - यह भावना ।
उसके कर्म में क्षत्रिय के ये सहज स्वभाव प्रकट होते हैं ।
शौर्यं -- शूरता । सहज साहस । लव लेश भी भय का न होना । आंग्ल भाषा में जिसे 'Dare Devil' कहते हैं ।
तेजः .. अन्यों को प्रभावित करने की क्षमता । तेजी से जाने वाली रेल गाडी पास वाली पटरी पर अकेली खड़ी एक डिब्बा को थोड़ा वेग देकर हिला देने की क्षमता उस गाडी का तेजस है । शान्त व्यक्ति का शान्त मन आस पास के व्यक्तियों के मन को , कुछ क्षण भर के लिए ही सही , शान्त कर देता है । किसी पुरुष की शौर्य गाथा सुनने वाले के मन में साहस जगा देती है । मैं भी उसी प्रकार बनूँ , ऐसा संकल्प जगता है । यह वृत्ति क्षत्रिय में प्रखर रहती है । तेज का अर्थ वेग भी है । त्वरित निर्णय , तेज क्रिया , क्षत्रिय का स्वभाव है ।
धृति .. धीरज , कष्टों को , विशेषतः शारीरिक यातनाओं को सहने की वृत्ति । युद्ध में होने वाले घांव निकट स्थित व्यक्ति को रुला दें परन्तु क्षत्रिय को नहीं । कठोर परिश्रम करने की तैयारी क्षत्रिय की बहुत अधिक होती है ।
दाक्ष्यं .. जागृति या दक्षता .. कुशाग्र दृष्टी और श्रवण शक्ति । कौन क्या कर रहा है , इसे जान कर व्यक्तियों का सही आंकलन करता है क्षत्रिय ।
युद्धे चाप्यपलायनम् .. हाथ लिये कार्य को अधूरा छोड़ भागता नहीं । संघर्ष से भागता नहीं । पराजय या मृत्यु का भय ना होना ।
दानं .. अहंकारी व्यक्ति का दानी होना स्वाभाविक है । मैं ही इन सभी का पालन पोषण कर रहा , मेरे ही कारण इन सब के घर की भट्टी जल रही , यह अहंकारी भाव क्षत्रिय में सहज होता है ।
ईश्वर भावः -- मैं सर्वाधिकार प्राप्त हूँ । सब कुछ मेरे ही हाथों में हैं । मैं ही सभी का भाग्य विधाता हूँ । सब दूर मेरा ही अधिकार स्थापित रहे , यह विचार 'ईश्वर भाव' है ।
श्री कृष्ण के अनुसार , "ये वृत्तियाँ क्षत्रियों का सहज स्वभाव हैं । क्षत्रिय के चिन्तन में , वाक् में और कर्मों में ये प्रकट होते हैं" ।
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