ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २८४
शूद्रस्यापि स्वभावजम ... (अध्याय १८ - श्लोक ४४)
ஶூத்ரஸ்யாபி ஸ்வபாவஜம் ... (அத்யாயம் 18 - ஶ்லோகம் 44)
Shoodrasyaapi Swabhaavajam ... (Chapter 18 - Shloka 44)
अर्थ : शूद्र का स्वभाव है ।
"परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम" कह रहे हैं श्री कृष्ण । श्रम द्वारा सेवा यह शूद्र का सहज स्वभाव है ।
ये स्वभाव चार स्पष्ट विभाग नहीं । इसकी चर्चा पूर्व भी की गयी है । ये चारों स्वभाव मिश्रित हैं । एक स्वभाव प्रभावी होता है । चिन्तन सहित श्रम हो सकता है । चिन्तन विहीन श्रम हो सकता है । ज्ञान युक्त श्रम या ज्ञान शून्य श्रम दोनों ही सम्भव है । हिसाब करता हुआ श्रम भी है । निरपेक्ष श्रम भी है । उसी प्रकार धनार्जन में श्रम है । ज्ञान अर्जन में भी श्रम है । शौर्य में भी श्रम है । अतः यह सत्य है की एक ही व्यक्ति में चारों स्वभाव मिश्रित पाए जाते हैं । नमो प्रचार यात्रा (Election २०१९) में आज मैं राजपालयम में जिस घर में रुका था उस घर की माता चॉक टुकड़े की मूर्तियाँ बनाती है । सम्पूर्ण रामायण और महाभारतम कथा के दृश्यों को इन लघु मूर्तियों में रचित किया है । सहस्रों शिल्प बनायी है । अपने विद्यालयीन पर्व से , लगभग ५० वर्ष इस कार्य में लगी है । गृहिणी के नाते अन्य कार्य भी किया है । परिवार , बच्चे , रसोई जैसे । शिल्प रचना के इस कार्य में भी श्रम की आवश्यकता है । ज्ञान की आवश्यकता है । अर्थ की भी आवश्यकता है । धीरज की आवश्यकता है । परमात्मा पर आश्रित रहने की वृत्ति आवश्यक है । अतः उस माता में ही ब्राह्मण है । क्षत्रिय है । वैश्य है । शूद्र भी है । चारों स्वभाव मिश्रित हैं । परन्तु शिल्प निर्माण के इस कर्म ही उसके जीवन में सर्वोपरि है । इस कर्म उसके शूद्र स्वभाव से जनित है और श्रम प्रधान है । श्री कृष्ण का यही कहना है ।
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