ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २८६
सर्वारम्भा हि दोषेण ... (अध्याय १८ - श्लोक ४८)
ஸர்வாரம்பா ஹி தோஷேண ... (அத்யாயம் 18 - ஶ்லோகம் 48)
Sarvaarambha Hi Doshena ... (Chapter 18 - Shloka 48)
अर्थ : सभी कर्म दोष युक्त हैं ...
दोष हैं कहकर किसी कार्य को न करना अज्ञान है । सभी कर्म दोषित हैं । पोलिस विभाग में हों तो क़ैद करना , सत्य के खोज में दोषियों को मारना , धमक दिखाना आदि कठोर कार्यों की आवश्यकता है । न्यायाधीश हों तो निर्दय होकर दंड लिखना पड़ता है । नेक व्यापारी भी लाभ कमाने अधिक कीमत में बेचता है । घर बनाने मिटटी खोदी तो कई जीवों की मृत्यु और कई जीवों के निवास का नाश करना पड़ता है । कृषि में जीवों को मारना पड़ता है । खेत में प्रवेश करने वाले पक्षियों को और भेड़ बकरियों को मार भगाकर उनको भोजन से वांछित करना पड़ता है । दूध बेचने वाला बछड़ा के मुँह से दूध छीनकर ही धन कमाता है । सभी कार्य दोष युक्त हैं । दोष है कहकर कार्य किये बिना रह नहीं सकते ।
एक सभा में मैं ने , "अपना काम को दोषयुक्त समझने वालों" को हाथ उठाने कहा । लगभग उपस्थित सभी ने हाथ उठाया । "अब हाथ में जो दोष युक्त कार्य को छोड़ अन्य कौन सा कार्य करना चाहते हो ?" पूछे जाने पर सभी ने ऐसे ही कार्य बताये जो अन्य किसी के द्वारा दोष युक्त कहा गया ।
प्राप्त कार्य को कर्तव्य समझकर करना ही उचित है । श्री कृष्ण का यही कहना है ।
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