ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २८९
विविक्त सेवी ... (अध्याय १८ - श्लोक ५२)
விவிக்த ஸேவீ ... (அத்யாயம் 18 - ஶ்லோகம் 52)
Vivikta Sevee ... (Chapter 18 - Shloka 52)
अर्थ : एकान्त में रहने वाला ...
एकान्त की प्रबल इच्छा , एकान्त में रहना .. यह एक वृत्ति है । ध्यान के अभ्यासक , अध्यात्म चिन्तन में लीन होने वाले साधक की यह विशेष वृत्ति है । संसारी विषयों में भले उन्हें रूचि न हो , परन्तु चारों दिशाओं से संसारी विषयों का जैसे आक्रमण सतत जारी है । ये आक्रमण अति प्रबल है । मन इनमे आकृष्ट हुआ नहीं तो भी इन्द्रिय द्वारों से ये विषय प्रति क्षण अपने भीतर घुस रहे हैं । यह सत्य है ।
ध्यान का अभ्यासक को अवश्य विविक्त सेवी बनना चाहिये । एकान्त में रहना चाहिये । हर्ष से एकान्त में मग्न होना चाहिये । आत्म ज्ञान प्राप्त योगी की स्थिति भिन्न है । वह तो बाह्य परिस्थिति से बाधित होता नहीं । परन्तु उस दिशा में प्रयत्न करने वाला साधक इन आक्रमणों से स्वयं का रक्षण करने एकान्त महत्त्व पूर्ण साधन है ।
एकान्त याने संसार के साथ किसी भी प्रकार का सम्बन्ध का न होना । परन्तु , क्या यह सम्भव है ?? आँखें बंद किये जा सकते हैं । कान का छिद्र ठूसा जा सकता है और शब्द द्वारा संसार से सम्बन्ध काटा जा सकता है । मुँह बंद रखा जा सकता है और भोजन और रूचि द्वारा संसारी सम्बन्ध काटा जा सकता है । ना बोलें तो कंठ द्वार भी बंद हो जाता है । परन्तु नासि द्वार ?? वह तो बंद रखा नहीं जा सकता । गंध , सुगंध और दुर्गन्ध का नासि द्वार से आक्रमण तो रोका नहीं जा सकता । त्वचा के ऊपर ठन्डे और गरम वायु का स्पर्श तो प्रतिक्षण होता रहेगा । कीड़े मच्छर चींटी अदि के स्पर्श तो रोके नहीं जा सकते । मन की स्थिति सर्वोपरि है । विषयों से सम्बन्ध के अनुभव की स्मृतियों द्वारा मन का उनके संग हर्षित होना , क्या स्तब्ध किया जा सकता है ?? कठिन अवश्य हैं । फिर भी एकान्त का प्रयोग , एकान्त की इच्छा , एकान्त का आकर्षण साधक के लिये हितकारी अवश्य है ।
ध्यान का अभ्यासक को अवश्य विविक्त सेवी बनना चाहिये । एकान्त में रहना चाहिये । हर्ष से एकान्त में मग्न होना चाहिये । आत्म ज्ञान प्राप्त योगी की स्थिति भिन्न है । वह तो बाह्य परिस्थिति से बाधित होता नहीं । परन्तु उस दिशा में प्रयत्न करने वाला साधक इन आक्रमणों से स्वयं का रक्षण करने एकान्त महत्त्व पूर्ण साधन है ।
एकान्त याने संसार के साथ किसी भी प्रकार का सम्बन्ध का न होना । परन्तु , क्या यह सम्भव है ?? आँखें बंद किये जा सकते हैं । कान का छिद्र ठूसा जा सकता है और शब्द द्वारा संसार से सम्बन्ध काटा जा सकता है । मुँह बंद रखा जा सकता है और भोजन और रूचि द्वारा संसारी सम्बन्ध काटा जा सकता है । ना बोलें तो कंठ द्वार भी बंद हो जाता है । परन्तु नासि द्वार ?? वह तो बंद रखा नहीं जा सकता । गंध , सुगंध और दुर्गन्ध का नासि द्वार से आक्रमण तो रोका नहीं जा सकता । त्वचा के ऊपर ठन्डे और गरम वायु का स्पर्श तो प्रतिक्षण होता रहेगा । कीड़े मच्छर चींटी अदि के स्पर्श तो रोके नहीं जा सकते । मन की स्थिति सर्वोपरि है । विषयों से सम्बन्ध के अनुभव की स्मृतियों द्वारा मन का उनके संग हर्षित होना , क्या स्तब्ध किया जा सकता है ?? कठिन अवश्य हैं । फिर भी एकान्त का प्रयोग , एकान्त की इच्छा , एकान्त का आकर्षण साधक के लिये हितकारी अवश्य है ।
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