ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २९५
ना तपस्काय , ना भक्ताय , न शुश्रूषवे , न मां असूयते ... (अध्याय १८ - श्लोक ६७)
நா தபஸ்காய .. நா பக்தாய நா அஶுஶ்ரூஷவே .. நா மாம் அஸூயதே .. (அத்யாயம் 18 - ஶ்லோகம் 67)
Naa Tapaskaaya Naa Bhaktaaya Naa ashushrooshave Naa Asooyate ... (Chapter 18 - Shloka 67)
अर्थ : जिसमे तप नहीं हो , जिसमे भक्ति न हो , जिसमे सुनाने की इच्छा न हो , जिसमे मेरे प्रति असूया हो ऐसे व्यक्तियों को गीता न सुनाना ।
प्रयत्न करने में क्या समस्या है ? एक सद्विचार सभी जन तक पहुँचाया गया तो अच्छा ही तो है !! परन्तु श्री कृष्ण यहाँ सुझा रहे हैं की "कुछ व्यक्तियों के संग गीता की चर्चा ना करें ।" गीता जीवनोपयोगी श्रेष्ठ विचार है । श्री कृष्ण भी श्रेष्ठ व्यक्ति हैं । कुछ व्यक्तियों को गीता से वांछित करना क्या सही है ??
श्री कृष्ण के लिए सभी सम हैं । कोई संदेह नहीं । फिर भी , अर्हता जिसे है नहीं उसे कोई श्रेष्ठ वस्तु या विचार दिया नहीं जाना चाहिये । "जिसके पास तपस ना हो , उसके संग गीता की चर्चा ना करो । जिसमे भक्ति ना हो उसके साथ गीता की चर्चा ना करें । जिसको रूचि न हो , उसे गीता ना कहिये । जिसमे ईर्ष्या की भावना हो उसे गीता ना सुनाना ।" यह श्री कृष्ण का सुझाव है ।
जिसके पास तपस ना हो , वह अधीर रहता है । शान्त मन होता नहीं । किसी गहन विचार को समझने योग्य बुद्धि होती नहीं । उसे गीता कहना व्यर्थ है । भक्ति जिसमें ना हो , उसमे श्रद्धा भी होती नहीं । बिन श्रद्धा का मनुष्य स्थूल संसार को ही सत्य मानता है । इन्द्रियों के अनुभव को अन्तिम सत्य मानता है । सूक्ष्म विषयों को समझने में वह असमर्थ हो जाता । गीता को समझने में सूक्ष्म दृष्टी अत्यावश्यक है ।
उसे ना सुनाना जिसमे सुनने की इच्छा ना हो । न केवल गीता । जब सुनाने की इच्छा ही न हो ? उसे तो कोई भी विषय ना सुनायें । वह प्रयत्न बंजर भूमि पर जल सींचना जैसा है । व्यक्ति जिसमे ईर्ष्या हो वह मानो अंधा ही है । उसकी चिन्तन शक्ति भंग हो जाती । ईर्ष्या युक्त मनुष्य शब्दों को यथा - तथा सुन भी नहीं सकता । ईर्ष्या के रंग चढ़ जाते हैं । ये सभी जन गीता को पचन कर , अपने भीतर रोपन करने में असमर्थ हैं ।
गीता का श्रवण मात्र पर्याप्त है नहीं । यह चिन्तन की जानी चाहिये । चिन्तन कर चित्त में दृढ़ता से बसाना चाहिये । इनको जोर जबरदस्ती से गीता सूना भी दिया , चिन्तन तो उसे स्वयं ही करना है । विचार को समझकर ग्रहण करने का प्रयास तो उसे स्वयं ही करना है । इसी लिए श्री कृष्ण इन्हें गीता सुनाने से मना कर रहे हैं ।
श्री कृष्ण के लिए सभी सम हैं । कोई संदेह नहीं । फिर भी , अर्हता जिसे है नहीं उसे कोई श्रेष्ठ वस्तु या विचार दिया नहीं जाना चाहिये । "जिसके पास तपस ना हो , उसके संग गीता की चर्चा ना करो । जिसमे भक्ति ना हो उसके साथ गीता की चर्चा ना करें । जिसको रूचि न हो , उसे गीता ना कहिये । जिसमे ईर्ष्या की भावना हो उसे गीता ना सुनाना ।" यह श्री कृष्ण का सुझाव है ।
जिसके पास तपस ना हो , वह अधीर रहता है । शान्त मन होता नहीं । किसी गहन विचार को समझने योग्य बुद्धि होती नहीं । उसे गीता कहना व्यर्थ है । भक्ति जिसमें ना हो , उसमे श्रद्धा भी होती नहीं । बिन श्रद्धा का मनुष्य स्थूल संसार को ही सत्य मानता है । इन्द्रियों के अनुभव को अन्तिम सत्य मानता है । सूक्ष्म विषयों को समझने में वह असमर्थ हो जाता । गीता को समझने में सूक्ष्म दृष्टी अत्यावश्यक है ।
उसे ना सुनाना जिसमे सुनने की इच्छा ना हो । न केवल गीता । जब सुनाने की इच्छा ही न हो ? उसे तो कोई भी विषय ना सुनायें । वह प्रयत्न बंजर भूमि पर जल सींचना जैसा है । व्यक्ति जिसमे ईर्ष्या हो वह मानो अंधा ही है । उसकी चिन्तन शक्ति भंग हो जाती । ईर्ष्या युक्त मनुष्य शब्दों को यथा - तथा सुन भी नहीं सकता । ईर्ष्या के रंग चढ़ जाते हैं । ये सभी जन गीता को पचन कर , अपने भीतर रोपन करने में असमर्थ हैं ।
गीता का श्रवण मात्र पर्याप्त है नहीं । यह चिन्तन की जानी चाहिये । चिन्तन कर चित्त में दृढ़ता से बसाना चाहिये । इनको जोर जबरदस्ती से गीता सूना भी दिया , चिन्तन तो उसे स्वयं ही करना है । विचार को समझकर ग्रहण करने का प्रयास तो उसे स्वयं ही करना है । इसी लिए श्री कृष्ण इन्हें गीता सुनाने से मना कर रहे हैं ।
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