ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २९८
करिष्ये वचनं तव ... (अध्याय १८ - श्लोक ७३)
கரிஷ்யே வசனம் தவ ... (அத்யாயம் 18 - ஶ்லோகம் 73)
Karishye Vachanam Tava ... (Chapter 18 - Shloka 73)
अर्थ : आप जैसे कहोगे वही करूंगा ।
यह अर्जुन का वचन है । "आप जैसे कहोगे वही करूंगा ।" इसके पूर्व श्री कृष्ण ने कहा था की , "यथेच्छसि तथा कुरु ।" अर्थात "तुम्हारी जैसी इच्छा हो , वैसे ही करो ।" और यहाँ अर्जुन कह रहे हैं , "करिष्ये वचनं तव ।" अर्थात "आप की जैसी इच्छा हो वही करूंगा ।" यही भारत की श्रेष्ठ गुरु - शिष्य परम्परा की महानता ।
जब गुरु कहते हैं की "यथेछसि तथा कुरु ।" अर्थात जैसी तुम्हारी इच्छा वैसी करो , तो गुरु विचार स्वातन्त्र्य और आचार स्वातन्त्र्य , जो हिन्दू धर्म का आधार है , को व्यक्त कर रहे । विचार स्वातन्त्र्य और आचार स्वातन्त्र्य वह विचार है जो संसार में अन्य कहीं भी सोचा नहीं गया , किसी अन्य समाज में जो बोला नहीं गया , हिन्दू धर्म में जिसे आग्रह पूर्वक कहा गया है और वैदिक काल से । यह मनुष्य की प्रगति के लिये आवश्यक है , ऐसा हिन्दू मनीषियों का मानना है । ज्ञान प्राप्ति के लिये यह अनिवार्य है और यह किसी भी परिस्थिति में मना नहीं किया जा सकता । यह हिन्दू धर्म का अद्भुत प्रतिज्ञा है । अपने देश के इतिहास में अन्य पन्थों को मानने वालों के शासन काल में और विदेशी शासन काल में यह स्वातन्त्र्य कुचला गया । स्वतन्त्र भारत के सत्तर वर्षों के इतिहास में विधर्मी संस्कार प्राप्त , इस्लाम पंथ की अनुयायी श्रीमती इंदिरा गांधी एमरजेंसी के अवसर पर इसे कुचलने का प्रयास किया ।
"करिष्ये वचनं तव " कहते समय अर्जुन समर्पण भाव को व्यक्त कर रहा है । यह भी हिन्दू धर्म की विशेषता है । यह भावना भी संसार में अन्य कहीं भी है नहीं । बड़े भाई के प्रति समर्पण , माता - पिता के प्रति समर्पण , पति के लिये समर्पण , धर्म के प्रति समर्पण , देव के सामने समर्पण ... ऐसे समर्पण के हजारों प्रेरक उदाहरण भारत देश में स्थापित हैं ।
यह जोर जबरदस्ती से लादा गया समर्पण नहीं । अपनी इच्छा के अनुसार व्यवहार करने का स्वातन्त्र्य होते हुए भी किया गया समर्पण है ।
जब गुरु कहते हैं की "यथेछसि तथा कुरु ।" अर्थात जैसी तुम्हारी इच्छा वैसी करो , तो गुरु विचार स्वातन्त्र्य और आचार स्वातन्त्र्य , जो हिन्दू धर्म का आधार है , को व्यक्त कर रहे । विचार स्वातन्त्र्य और आचार स्वातन्त्र्य वह विचार है जो संसार में अन्य कहीं भी सोचा नहीं गया , किसी अन्य समाज में जो बोला नहीं गया , हिन्दू धर्म में जिसे आग्रह पूर्वक कहा गया है और वैदिक काल से । यह मनुष्य की प्रगति के लिये आवश्यक है , ऐसा हिन्दू मनीषियों का मानना है । ज्ञान प्राप्ति के लिये यह अनिवार्य है और यह किसी भी परिस्थिति में मना नहीं किया जा सकता । यह हिन्दू धर्म का अद्भुत प्रतिज्ञा है । अपने देश के इतिहास में अन्य पन्थों को मानने वालों के शासन काल में और विदेशी शासन काल में यह स्वातन्त्र्य कुचला गया । स्वतन्त्र भारत के सत्तर वर्षों के इतिहास में विधर्मी संस्कार प्राप्त , इस्लाम पंथ की अनुयायी श्रीमती इंदिरा गांधी एमरजेंसी के अवसर पर इसे कुचलने का प्रयास किया ।
"करिष्ये वचनं तव " कहते समय अर्जुन समर्पण भाव को व्यक्त कर रहा है । यह भी हिन्दू धर्म की विशेषता है । यह भावना भी संसार में अन्य कहीं भी है नहीं । बड़े भाई के प्रति समर्पण , माता - पिता के प्रति समर्पण , पति के लिये समर्पण , धर्म के प्रति समर्पण , देव के सामने समर्पण ... ऐसे समर्पण के हजारों प्रेरक उदाहरण भारत देश में स्थापित हैं ।
यह जोर जबरदस्ती से लादा गया समर्पण नहीं । अपनी इच्छा के अनुसार व्यवहार करने का स्वातन्त्र्य होते हुए भी किया गया समर्पण है ।
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