ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २९९
व्यास प्रसादात ... (अध्याय १८ - श्लोक ७५)
வ்யாஸ ப்ரஸாதாத் ... (அத்யாயம் 18 - ஶ்லோகம் 75)
Vyaasa Prasaadaath ... (Chapter 18 - Shloka 75)
अर्थ : श्री वेद व्यास की कृपा प्रसाद के रूप में ...
ये शब्द हैं अँधा राजा धृतराष्ट्र के सारथी सञ्जय के । सञ्जय को एक विशेष शक्ति या क्षमता प्राप्त थी । दिव्य चक्षु जिनके सहारे वह दूर स्थित कुरुक्षेत्र के दृश्यों को हस्तिनापुर के राजमहल में बैठे बैठे ही देख सका और अँधा राजा धृतराष्ट्र के लिये वर्णन कर सका । ये दिव्य चक्षु उसे श्री वेद व्यास की कृपा से प्राप्त थी । इन्हें ही वह कह रहा , "व्यास प्रसाद ।"
श्री वेद व्यास युद्ध टालने की हेतु से हस्तिनापुर आये थे और धृतराष्ट्र को समझाने का प्रयास किया । परन्तु , धृतराष्ट्र तो हठी दुर्योधन के सामने निस्सहाय था । श्री वेद व्यास धृतराष्ट्र को इन दिव्य चक्षु प्रदान करना चाहे , जिससे वह अपने राजमहल में बैठे बैठे कुरुक्षेत्र युद्धभूमि की गतिविधियों को देख सकेगा । "अपने सौ पुत्रों को मरते देख ना सकूंगा" कहकर धृतराष्ट्र ने इस भेंट को अस्वीकार किया । धर्म का जानकार धृतराष्ट्र को अधर्म मार्ग पर चल रहे कौरवों का युद्ध में निश्चित पराजय और मृत्यु ही दिखा । इसी लिये श्री वेद व्यास ने उसके सारथी सञ्जय को ही इन दिव्य चक्षु प्रदान किये । ये चक्षु उसे अनपेक्षित ही प्राप्त हुए । इन्हें ही वह कह रहा , "व्यास प्रसाद ।"
इन्हीं दिव्य चक्षुओं के सहारे सञ्जय श्री कृष्णार्जुन के बीच हुए उस अमृत तुल्य अद्भुत संवाद श्रीमद्भगवद्गीता सुन सका । इन्हीं चक्षुओं के सहारे सञ्जय उस परम दिव्य विश्व रूप दर्शन कर सका ।
अतः हर्ष और आनंद से उछल रहे हैं सञ्जय और इन दिव्य चक्षुओं को श्री वेद व्यास से अनुग्रहित प्रसाद मान रहे हैं ।
श्री वेद व्यास युद्ध टालने की हेतु से हस्तिनापुर आये थे और धृतराष्ट्र को समझाने का प्रयास किया । परन्तु , धृतराष्ट्र तो हठी दुर्योधन के सामने निस्सहाय था । श्री वेद व्यास धृतराष्ट्र को इन दिव्य चक्षु प्रदान करना चाहे , जिससे वह अपने राजमहल में बैठे बैठे कुरुक्षेत्र युद्धभूमि की गतिविधियों को देख सकेगा । "अपने सौ पुत्रों को मरते देख ना सकूंगा" कहकर धृतराष्ट्र ने इस भेंट को अस्वीकार किया । धर्म का जानकार धृतराष्ट्र को अधर्म मार्ग पर चल रहे कौरवों का युद्ध में निश्चित पराजय और मृत्यु ही दिखा । इसी लिये श्री वेद व्यास ने उसके सारथी सञ्जय को ही इन दिव्य चक्षु प्रदान किये । ये चक्षु उसे अनपेक्षित ही प्राप्त हुए । इन्हें ही वह कह रहा , "व्यास प्रसाद ।"
इन्हीं दिव्य चक्षुओं के सहारे सञ्जय श्री कृष्णार्जुन के बीच हुए उस अमृत तुल्य अद्भुत संवाद श्रीमद्भगवद्गीता सुन सका । इन्हीं चक्षुओं के सहारे सञ्जय उस परम दिव्य विश्व रूप दर्शन कर सका ।
अतः हर्ष और आनंद से उछल रहे हैं सञ्जय और इन दिव्य चक्षुओं को श्री वेद व्यास से अनुग्रहित प्रसाद मान रहे हैं ।
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