ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - ३०३
मतिः मम ... (अध्याय १८ - श्लोक ७८)
மதிஹி மம ... (அத்யாயம் 18 - ஶ்லோகம் 78)
Matih Mama ... (Chapter 18 - Shloka 78)
अर्थ : यह मेरा मत है ।
अन्धा राजा धृतराष्ट्र के सारथी सञ्जय के ही शब्द हैं ये भी । हमने श्री कृष्ण को गीता में कई बार इन शब्दों का प्रयोग करते सूना है । सम्भव है की श्री कृष्ण के अठारह अध्याय सुनते सुनते सञ्जय के मन में भी यह संस्कार हो गए हो !!
परन्तु , सत्य यह है की सामान्य हिन्दुओं के मन में यह भावना गहरे जड़ पकड़कर बैठी है । अनादि काल से ही अपने ऋषी मुनियों ने इस विचार को दृढ़ता से रखा और हिन्दू समाज मन में इसे आरोपित कर इसका पोषण किया ।
मत स्वातंत्र्य को अभिव्यक्त करने वाले शब्द हैं ये । स्वयं के मत को , स्वयं के अभिप्राय को अन्यों पर थोंपना जिसे अमान्य है , उसके शब्द हैं ये । "यह मेरा मत है ।" (आज कल राजनैतिक दुनिया में भी ये शब्द चलते हैं । अपनी पार्टी के मत विरुद्ध विचार कह देता है कोई राजनीतिज्ञ । वह शक्तिशाली हो तो पार्टी "यह उसका निजी मत है" इन शब्दों के पीछे छुपती है और उसपर अनुशासन के कारवाई होते नहीं । अन्यथा भिन्न विचार कहने वाला स्वयं "ये मेरे निजी विचार है" कहकर अनुशासन कारवाई से बचने का प्रयत्न करता है । मत स्वातन्त्र्य की पूर्ण स्वीकृति है नहीं ।) परन्तु सञ्जय तो एक साधारण नौकर है । निम्न स्तर पर कार्य करने वाला एक व्यक्ति है । उसे तो किसी भी प्रकार के अधिकार प्राप्त नहीं । वह किसी के ऊपर स्वयं के विचार को थोंपने स्थिति में है नहीं । ये शब्द उसके लिए जंचते नहीं ।
यहाँ सञ्जय के ये शब्द उसी 'मत स्वातन्त्र्य' का एक और पहलू को दर्शाते हैं । "वही विचार स्वातन्त्र्य मुझे भी प्राप्त है । अपने स्वयं के विचार को मुझपर थोपने का अधिकार अन्यों को नहीं । आप मेरे यजमान हो । मुझे वेतन देते हो । इस कारण आपके विचार मुझपर ठूँसने की अनुमति है नहीं आपको ।" इस भावना को सञ्जय इन शब्दों द्वारा प्रकट कर रहे हैं ।
धृतराष्ट्र के पुत्र पांडवों पर वैर भावना लेकर , उन्हें समाप्त करने के कई प्रयत्नों में लगे रहे । कई षड़यंत्र रचा । कुरुक्षेत्र युद्ध इन प्रयत्नों का ही अन्तिम परिणाम है । यहाँ सञ्जय एक अनुचर के नाते अपने यजमान धृतराष्ट्र को युद्धभूमि के गतिविधियों का वर्णन कर रहा है । धृतराष्ट्र अपने बेटों का विजय समाचार की अपेक्षा कर रहा । विपरीत वर्णन से चिढ रहा । परन्तु सञ्जय तो है धर्मात्मा । उसका ह्रदय पांडवों के पक्ष में है । वह तो पांडवों के विजय के पक्ष में था । विस्मित अवस्था में उसने इसकी घोषणा भी कर दिया था । "जहाँ योगेश्वर श्री कृष्ण हो , जहाँ धनुर्धारी अर्जुन उसके साथ हो , वहीं यश है । ना केवल यश , कीर्ति , श्री , वैभव और दृढ़ नीति भी वहीं हैं । इस प्रकार एक सुशासन भी वहीं है ।" ये थे सञ्जय के शब्द । इन शब्दों को कहने के पश्चात सञ्जय को अपने नौकर होने का और धृतराष्ट्र का यजमान होने का भान आया । तुरन्त 'यह मेरा मत है' कहते हुए अपने उदगार की समाप्ति कर रहा है सञ्जय ।
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