ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २९६
न च तस्मान मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रिय कृत्तमः ... (अध्याय १८ - श्लोक ६९)
ந ச தஸ்மான் மநுஷ்யேஷு கஶ்சின் மே ப்ரிய க்ருத்தமஹ ... (அத்யாயம் 18 - ஶ்லோகம் 69)
Na cha Tasmaan Manushyeshu KaschinMe Priya Kruttamah ... (Chapter 18 - Shloka 69)
अर्थ : उस मनुष्य के समान मेरे लिए प्रिय कार्य करने वाला और कोई नहीं ।
यहाँ श्री कृष्ण किस कार्य को अपने लिये सर्वाधिक प्रिय कार्य कह रहे हैं ?? गीता का अध्ययन और भक्तों को गीता बताना । श्री कृष्ण कह रहे हैं की "यही मेरे लिये सर्वाधिक प्रिय कार्य है ।" विभूति योग में अपनी विभूतियाँ कहते समय श्री कृष्ण ने विद्याओं में अध्यात्म विद्या को अपनी विभूति कहा था । गीता का अध्ययन अध्यात्म विद्या प्राप्त करना ही है । अतः गीता का अध्ययन श्री परमात्मा की उपासना ही है । यही श्री कृष्ण के लिये परम इष्ट कार्य है ।
जो स्वयं को प्राप्त है , उसे अन्यों को दिखाना मनुष्य का सहज स्वभाव है । और प्राप्त वस्तु यदि मूल्यवान हो तो वह बड़े गर्व से उसे अन्यों को दिखायेगा । यहाँ प्राप्त है अध्यात्म विद्या । इसे अन्यों को समझाना , विशेषतः भक्तों को समझाकर अध्यात्म का बोध कराना यह श्रेष्ठ कार्य है । कुरुक्षेत्र युद्ध भूमि पर जब अर्जुन सम्भ्रमित अवस्था में युद्ध ना करने की बात कर रहा था , श्री कृष्ण के सामने दो पर्याय थे । वे अर्जुन की बात मान लेते और उसे युद्ध क्षेत्र से बहिर्गमन करने की अनुमति दे देते । अथवा उसमें आवेश भड़काकर , उसे उत्तेजित कराकर युद्ध के लिये उसे प्रोत्साहित करते । ये दोनों मार्ग सुलभ मार्ग थे । परन्तु श्री कृष्ण ने तीसरा मार्ग चुना , जो अत्यन्त कठिन मार्ग था । उन्होंने अर्जुन को अध्यात्म विद्या दिया , गीता के रूप में । उसे योगी बनाने का प्रयास किया । योग युक्त मानस के साथ युद्ध में भाग लेने उसे प्रेरणा दिया । यह अत्यन्त कठिन परन्तु श्रेष्ट प्रयत्न है । हम से भी श्री कृष्ण की यही अपेक्षा है । गीता का अध्यायन कर उसे हम भक्तों के संग बाँटने की चेष्टा करें । इस से उनके मनों में अध्यात्म ज्ञान का प्रकाश जगायें । यही श्री कृष्ण के लिए परम इष्ट कार्य है । वे कह रहे हैं की इस के समान श्रेष्ट अन्य कोई कार्य संसार में नहीं ।
जो स्वयं को प्राप्त है , उसे अन्यों को दिखाना मनुष्य का सहज स्वभाव है । और प्राप्त वस्तु यदि मूल्यवान हो तो वह बड़े गर्व से उसे अन्यों को दिखायेगा । यहाँ प्राप्त है अध्यात्म विद्या । इसे अन्यों को समझाना , विशेषतः भक्तों को समझाकर अध्यात्म का बोध कराना यह श्रेष्ठ कार्य है । कुरुक्षेत्र युद्ध भूमि पर जब अर्जुन सम्भ्रमित अवस्था में युद्ध ना करने की बात कर रहा था , श्री कृष्ण के सामने दो पर्याय थे । वे अर्जुन की बात मान लेते और उसे युद्ध क्षेत्र से बहिर्गमन करने की अनुमति दे देते । अथवा उसमें आवेश भड़काकर , उसे उत्तेजित कराकर युद्ध के लिये उसे प्रोत्साहित करते । ये दोनों मार्ग सुलभ मार्ग थे । परन्तु श्री कृष्ण ने तीसरा मार्ग चुना , जो अत्यन्त कठिन मार्ग था । उन्होंने अर्जुन को अध्यात्म विद्या दिया , गीता के रूप में । उसे योगी बनाने का प्रयास किया । योग युक्त मानस के साथ युद्ध में भाग लेने उसे प्रेरणा दिया । यह अत्यन्त कठिन परन्तु श्रेष्ट प्रयत्न है । हम से भी श्री कृष्ण की यही अपेक्षा है । गीता का अध्यायन कर उसे हम भक्तों के संग बाँटने की चेष्टा करें । इस से उनके मनों में अध्यात्म ज्ञान का प्रकाश जगायें । यही श्री कृष्ण के लिए परम इष्ट कार्य है । वे कह रहे हैं की इस के समान श्रेष्ट अन्य कोई कार्य संसार में नहीं ।
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