ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २९३
यथेच्छसी तथा कुरु ... (अध्याय १८ - श्लोक ६३)
யதேச்சஸி ததா குரு ... (அத்யாயம் 18 - ஶ்லோகம் 63)
Yathechchasi Tathaa Kuru ... (Chapter 18 - Shloka 63)
अर्थ : जैसी तुम्हारी इच्छा , वैसे ही करो ...
हिन्दू धर्म का आधार है यह विचार । हिन्दू धर्म में ख्रिस्ती 'commandments' (आज्ञायें) हैं नहीं । इस्लामी फ़तवे हैं नहीं । दैवी आज्ञा हैं नहीं । यहाँ पूर्ण स्वातन्त्र्य है , विचार स्वातन्त्र्य और आचार स्वातन्त्र्य । भगवान के अस्तित्त्व को नकारने का भी स्वातन्त्र्य है । हाँ !! अपने चिन्तन और कर्म के फल निश्चित है , प्रकृति के नियमानुसार फल । प्रत्येक चिन्तन और कर्म के परिणाम अवश्य हैं ।
विचार स्वातन्त्र्य चाहिए तो उन विचारों के परिणाम का दायित्त्व भी स्वीकारना पडेगा । कर्म स्वातन्त्र्य के साथ साथ कर्म फलों को भी भुगतना पडेगा । यहाँ हिन्दू धर्म में कालानुरूप परिवर्तन है । प्रगति भी है । स्वातन्त्र्य को नकारने वाले उन सम्प्रदायों में व्यक्ति और समाज को प्रकृति और समाज के प्रति दायित्त्व है नहीं । क्यूँ ?? अपने स्वयं के जीवन का भी दायित्त्व है नहीं । वहाँ परिवर्तन के आशय नहीं । प्रगति के मार्ग भी बंद । बस !! पुस्तक में लिखे हुए शब्दों को अन्तिम सत्य मानना है । ईश्वर दूत के वचनों को आज्ञा मान लेना है । समाज ने प्रगति चाहा तो पुस्तक को छोड़ना पडेगा । सम्प्रदाय को छोड़ना पडेगा । पुस्तक या प्रगति ?? पन्थ या कालानुरूप परिवर्तन ?? दो में एक को चुनना पडेगा और दूसरे को छोड़ना पडेगा ।
यहाँ श्री कृष्ण ने अर्जुन को विस्तार से गीता सुनाया और अन्त में ये वचन कह रहे हैं । "पार्थ !! तुम मेरे लिये प्रिय हो । इसलिये मैं ने गीता कही । अब तुम्हें जो सही लगे वही करो । तुम्हारी इच्छा जैसी हो वैसा करें । यही हिन्दू धर्म की महानता है । इसी लिये हिन्दू धर्म काल प्रवाह में मिट नहीं गया । ऐसे बिकट अवसर कई आये जब यह प्रतीत होता था की , "बस ! अब हिन्दू धर्म का अन्तिम क्षण आ ही गया ।" परन्तु उस अवस्था से हिन्दू धर्म पुनरुज्जीवित होकर परमोज्ज्वल स्थिति प्राप्त किया है । हिन्दी भाषा में एक वचन प्रचलित है । "नित्य नूतन - चिर पुरातन ।" हिन्दू धर्म की यह उत्तम व्याख्य्य है ।
विचार स्वातन्त्र्य चाहिए तो उन विचारों के परिणाम का दायित्त्व भी स्वीकारना पडेगा । कर्म स्वातन्त्र्य के साथ साथ कर्म फलों को भी भुगतना पडेगा । यहाँ हिन्दू धर्म में कालानुरूप परिवर्तन है । प्रगति भी है । स्वातन्त्र्य को नकारने वाले उन सम्प्रदायों में व्यक्ति और समाज को प्रकृति और समाज के प्रति दायित्त्व है नहीं । क्यूँ ?? अपने स्वयं के जीवन का भी दायित्त्व है नहीं । वहाँ परिवर्तन के आशय नहीं । प्रगति के मार्ग भी बंद । बस !! पुस्तक में लिखे हुए शब्दों को अन्तिम सत्य मानना है । ईश्वर दूत के वचनों को आज्ञा मान लेना है । समाज ने प्रगति चाहा तो पुस्तक को छोड़ना पडेगा । सम्प्रदाय को छोड़ना पडेगा । पुस्तक या प्रगति ?? पन्थ या कालानुरूप परिवर्तन ?? दो में एक को चुनना पडेगा और दूसरे को छोड़ना पडेगा ।
यहाँ श्री कृष्ण ने अर्जुन को विस्तार से गीता सुनाया और अन्त में ये वचन कह रहे हैं । "पार्थ !! तुम मेरे लिये प्रिय हो । इसलिये मैं ने गीता कही । अब तुम्हें जो सही लगे वही करो । तुम्हारी इच्छा जैसी हो वैसा करें । यही हिन्दू धर्म की महानता है । इसी लिये हिन्दू धर्म काल प्रवाह में मिट नहीं गया । ऐसे बिकट अवसर कई आये जब यह प्रतीत होता था की , "बस ! अब हिन्दू धर्म का अन्तिम क्षण आ ही गया ।" परन्तु उस अवस्था से हिन्दू धर्म पुनरुज्जीवित होकर परमोज्ज्वल स्थिति प्राप्त किया है । हिन्दी भाषा में एक वचन प्रचलित है । "नित्य नूतन - चिर पुरातन ।" हिन्दू धर्म की यह उत्तम व्याख्य्य है ।
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