ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - २९२
तमेव शरणं गच्छ .. (अध्याय १८ - श्लोक ६२)
தமேவ ஶரணம் கச்ச -- (அத்யாயம் 18 - ஶ்லோகம் 62)
Thameva Sharanam Gachcha ... (Chapter 18 - Shlokam 62)
Thameva Sharanam Gachcha ... (Chapter 18 - Shlokam 62)
अर्थ : उसके शरण में जायें ..
श्री परमात्मा के शरण जाना , उसपर आश्रित रहकर जीना .. यह भगवत् उपासना में श्रेष्ट मार्ग है । इस में बाधा है 'मैं' । "मैं जीतूंगा ।" ; "मैं जो सोचूँ , उसे कर दिखाऊँ ।" ; "मेरे लिये असम्भव कुछ नहीं ।" ; "मेरा जीवन मेरे हाथों में ।" ये नवीन युग के कुछ नारे हैं । आधुनिक काल के कई समाज चिंतकों का मानना है की मनुष्य के आत्म विशवास को जगाने के लिये ऐसे नारे महत्त्वपूर्ण है । 'Ego boosting' या फुगाया गया अहंकार इहलोकि जीवन में यशस्वी होने के लिये अनिवार्य है । यह विचार चारों दिशाओं से हमारे कानों में भरा जा रहा है ।
इस स्थिति में इन का विचार है की श्री कृष्ण का "शरण जाने" का यह आह्वान काल अनुकूल नहीं । इसे जीवन में उतारा नहीं जा सकता । उनके मतानुसार शरणागति अपनी प्रगतिशील और यशस्वी जीवन के लिये बाधक है ।
झुककर पग छूना , साष्टांग (दण्डवत) नमस्कार करना , निर्णयों को उसपर छोड़ देना , इच्छा - द्वेष त्याग कर जीयें , उसपर आश्रित रहकर जीना , जो प्राप्त हो , जैसा प्राप्त हो और जितना प्राप्त हो उसे सहर्ष स्वीकार करें , स्वयं के प्रति ना कोई चिन्ता , स्वयं के लिये ना कोई योजना , निरपेक्ष जीवन जीना , आदि सभी समर्पण की कुछ सीढ़ियाँ हैं ।
आध्यात्मिक प्रगति मार्ग पर समर्पण यह अति आवश्यक साधन है । संसारी जीवन में भी समर्पण उपयोगी है । जीवन में हमारी सभी इच्छाओं की , हमारी सभी अपेक्षाओं की पूर्ती होती नहीं । इन अवसरों पर मन में उठने वाली निराशा और ग्लानी को मिटाकर मन को स्वस्थ , शान्त और संतुलित रखने में समर्पण ही उपयोगी है ।
शरणागत हो जाओ ।
श्री परमात्मा के शरण जाना , उसपर आश्रित रहकर जीना .. यह भगवत् उपासना में श्रेष्ट मार्ग है । इस में बाधा है 'मैं' । "मैं जीतूंगा ।" ; "मैं जो सोचूँ , उसे कर दिखाऊँ ।" ; "मेरे लिये असम्भव कुछ नहीं ।" ; "मेरा जीवन मेरे हाथों में ।" ये नवीन युग के कुछ नारे हैं । आधुनिक काल के कई समाज चिंतकों का मानना है की मनुष्य के आत्म विशवास को जगाने के लिये ऐसे नारे महत्त्वपूर्ण है । 'Ego boosting' या फुगाया गया अहंकार इहलोकि जीवन में यशस्वी होने के लिये अनिवार्य है । यह विचार चारों दिशाओं से हमारे कानों में भरा जा रहा है ।
इस स्थिति में इन का विचार है की श्री कृष्ण का "शरण जाने" का यह आह्वान काल अनुकूल नहीं । इसे जीवन में उतारा नहीं जा सकता । उनके मतानुसार शरणागति अपनी प्रगतिशील और यशस्वी जीवन के लिये बाधक है ।
झुककर पग छूना , साष्टांग (दण्डवत) नमस्कार करना , निर्णयों को उसपर छोड़ देना , इच्छा - द्वेष त्याग कर जीयें , उसपर आश्रित रहकर जीना , जो प्राप्त हो , जैसा प्राप्त हो और जितना प्राप्त हो उसे सहर्ष स्वीकार करें , स्वयं के प्रति ना कोई चिन्ता , स्वयं के लिये ना कोई योजना , निरपेक्ष जीवन जीना , आदि सभी समर्पण की कुछ सीढ़ियाँ हैं ।
आध्यात्मिक प्रगति मार्ग पर समर्पण यह अति आवश्यक साधन है । संसारी जीवन में भी समर्पण उपयोगी है । जीवन में हमारी सभी इच्छाओं की , हमारी सभी अपेक्षाओं की पूर्ती होती नहीं । इन अवसरों पर मन में उठने वाली निराशा और ग्लानी को मिटाकर मन को स्वस्थ , शान्त और संतुलित रखने में समर्पण ही उपयोगी है ।
शरणागत हो जाओ ।
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