ॐ
गीता की कुछ शब्दावली - ३०१
तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपम अत्यद्भुतम हरेः विस्मयो में महान राजन हृष्यामि च पुनः पुनः । (अध्याय १८ - श्लोक ७७)
தச்ச ஸம்ஸ்ம்ருத்ய ஸம்ஸ்ம்ருத்ய ரூபம் அதி அத்புதம் ஹரேஹ விஸ்மயோ மே மஹான் ராஜன் ஹ்ருஷ்யாமி ச புனஹ் புனஹ் .. (அத்யாயம் 18 - ஶ்லோகம் 77)
Thath cha Samsmruthya Samsmruthya Roopam Ati Adbhutam Hareh .. Vismayo Me Mahaan Rajan Hrushyaami Cha Punah Punah ... (Chapter 18 - Shloka 77)
अर्थ : श्री हरी का वह अद्भुत विराट रूप का पुनः पुनः स्मरण कर , मैं पुनः पुनः विस्मय में पड़ता हूँ और पुनः पुनः हर्षित होता हूँ ।
ये धृतराष्ट्र सारथी सञ्जय के वचन हैं । सञ्जय इस युद्ध पर्व में दो महाभाग्य की प्राप्ति करता है । दोनों उसके लिये अनपेक्षित थे । स्वयं को एक साधारण , सर्व साधारण समझ रहा था सञ्जय । श्री वेद व्यास ने उसे दिव्य दृष्टी प्रदान किया तो विनम्रता से , सेवा करने का एक अवसर समझकर उसे स्वीकार किया । परन्तु , उसपर भगवद्कृपा बरसी जो उसके लिये अनपेक्षित था । श्री कृष्ण और अर्जुन के बीच में चले संवाद , अमृततुल्य दैवी संवाद को सुनाने का भाग्य , सीधे श्री कृष्ण के दिव्य मुख से उनके शब्दों को सुनाने का भाग्य और श्री परमात्मा का उस दिव्य विराट रूप का दर्शन करने का सौभाग्य उसे प्राप्त हुए । इसलिये वह हर्षित हो रहा । विस्मय में स्वयं को खो रहा । पुनः पुनः उस दैवी स्वरुप को स्मरण में लाकर आल्हादित हो रहा । आश्चर्य में डूब रहा । परवश हो रहा । महात्मा सञ्जय की यह अद्भुत स्थिति है ।
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